Perspective No. 2 - Sketchstory No. 34 - 'Anticipation' by Monika Sekhri



पलकें झुकी, झुका मेरा अंतर्मन 
किया अर्पण तन और मन 
यकीन था की आ गई 
ऋतू खुशिओयों की झम झम


क्यूँ फिर लगने सा लगा 
की जैसे बंद हूँ चार दीवार में 
सांस रुकी और कभी चली 
बिन किसी एहसास के


मेरे मन चल उठ फिर से 
लगाएं एक और हुंकार 
पुकार लें खुशियों को
बिना किये इंतज़ार

****

I lowered my eyes 
And my heart
Anticipating glee 
Was beating fast


Fleeting as it was
The space felt cramped
With every breath, why 
Came the discontent


Buckle up my heart
As there is much to do
Hoot for pleasures
Which have gone far too


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